loading...

Tuesday, 30 August 2016

परीक्षा गुरु (हिन्दी का प्रथम उपन्यास)

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1885 को की थी।

लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। मदनमोहन एक समृद्ध वैश्व परिवार में पैदा होता है, पर बचपन में अच्छी शिक्षा और उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण और युवावस्था में गलत संगति में पड़कर अपनी सारी दौलत खो बैठता है। न ही उसे आदमी की ही परख है। वह अपने सच्चे हितैषी ब्रजकिशोर को अपने से दूर करके चुन्नीलाल, शंभूदयाल, बैजनाथ और पुरुषोत्तम दास जैसे कपटी, लालची, मौका परस्त, खुशामदी "दोस्तों" से अपने आपको घिरा रखता है। बहुत जल्द इनकी गलत सलाहों के चक्कर में मदनमोहन भारी कर्ज में भी डूब जाता है और कर्ज समय पर अदा न कर पाने से उसे अल्प समय के लिए कारावास भी हो जाता है।
इस कठिन स्थिति में उसका सच्चा मित्र ब्रजकिशोर, जो एक वकील है, उसकी मदद करता है और उसकी खोई हुई संपत्ति उसे वापस दिलाता है। इतना ही नहीं, मदनमोहन को सही उपदेश देकर उसे अपनी गलतियों का एहसास भी कराता है।
उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेजी से आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रज भाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। काव्य के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रज भाषा चुना है।
उपन्यास की भाषा हिंदी के प्रारंभिक गद्य का अच्छा नमूना है। उसमें संस्कृत और फारसी के कठिन शब्दों से यथा संभव बचा गया है। सरल, बोलचाल की (दिल्ली के आस-पास की) भाषा में कथा सुनाई गई है। इसके बावजूद पुस्तक की भाषा गरिमायुक्त और अभिव्यंजनापूर्ण है। वर्तनी के मामले में लेखक ने बोलचाल की पद्धति अपनाई है। कई शब्दों को अनुनासिक बनाकर या मिलाकर लिखा है, जैसे, रोनें, करनें, पढ़नें, आदि, तथा, उस्समय, कित्ने, उन्की, आदि। “में” के लिए “मैं”, “से” के लिए “सैं”, जैसे प्रयोग भी इसमें मिलते हैं। कुछ अन्य वर्तनी दोष भी देखे जा सकते हैं, जैसे, समझदार के लिए समझवार, विवश के लिए बिबश। पर यह देखते हुए कि यह उपन्यास उस समय का है जब हिंदी गद्य स्थिर हो ही रहा था, उपन्यास की भाषा काफी सशक्त ही मानी जाएगी।
इस उपन्यास की भाषा का एक बानगी –
“सुख-दुःख तो बहुधा आदमी की मानसिक वृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन है। एक बात सै एक मनुष्य को अत्यन्त दःख और क्लेश होता है वही दूसरे को खेल तमाशे की-सी लगती है इसलिए सुख-दुःख होनें का कोई नियम मालूम होता” मुंशी चुन्नीलाल नें कहा।
“मेरे जान तो मनुष्य जिस बात को मन सै चाहता है उस्का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा।
“तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख में फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्का क्या कराण? असल बात यह है कि जिस्समय मनुष्य के मन मैं जो वृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशीकी सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछताबा करता है और न्याय वृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्हने अपनी भूल का अंगीकार करकै उस्के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्म सै आत्मग्लानि और उचित कर्म्म सै आत्मप्रसाद हुए बिना सर्वथा नहीं रहता” लाला ब्रजकिशोर बोले। (सुख-दुःख, प्रकरण से)
DOWNLOAD- परीक्षा गुरु (हिन्दी का प्रथम उपन्यास)

Monday, 29 August 2016

चरित्रहीन


प्रेम की तलाश में भटकाव की कथा है - चरित्रहीन


बांगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का प्रसिद्ध उपन्यास चरित्रहीन प्रेम की तलाश में भटकाव की कहानी है. यह भटकाव है हारान की पत्नी किरणमयी का. वह अपने पति से संतुष्ट नहीं क्योंकि उसका कहना है कि पति से उसके सम्बन्ध महज गुरु-शिष्य के हैं, इसीलिए वह हारान का इलाज करने आने वाले डॉक्टर अनंगमोहन से सम्बन्ध बना लेती है, लेकिन बाद में उसे ठुकराकर उपेन्द्र की तरफ झुकती है. उपेन्द्र अपने एकनिष्ठ पत्नी प्रेम के कारण उसके प्रेम निवेदन को ठुकरा देता है, लेकिन वह अपने प्रिय दिवाकर को पढाई के लिए उसके पास इस उम्मीद से छोड़ जाता है कि वह उसका ध्यान रखेगी, लेकिन वह उसी पर डोरे डाल लेती है और उसे भगाकर आराकान ले जाती है, लेकिन उनके सम्बन्ध स्थायी नहीं रह पाते.
इस उपन्यास का शीर्षक किरणमयी पर ही आधारित है, लेकिन यही इसकी एकमात्र कथा नहीं. दरअसल इसमें दो कथाएँ समांतर चलती हैं --- सतीश-सावित्री की कथा और किरणमयी की कथा. उपेन्द्र दोनों कथाओं को जोड़ने वाली कड़ी है. उपेन्द्र सतीश और हारान बाबू का दोस्त है. सतीश पढाई के लिए कलकता आता है तो उपेन्द्र बीमार हारान बाबू की देखभाल के लिए. उपेन्द्र के इर्द-गिर्द दोनों कथाएँ चलती हैं. उसी की मृत्यु के साथ इस उपन्यास का अंत होता है. उपेन्द्र एक चरित्रवान पुरुष है. पत्नी सुरबाला की मृत्यु के बाद अस्वस्थ हो जाता है. वह दिवाकर और सतीश को पतन की खाई से बाहर निकाल कर मृत्यु को प्राप्त होता है.
सतीश-सावित्री की कथा उपन्यास के शरू से ही चलती है. सावित्री एक विधवा है. वह वहां पर नौकरी करती है यहाँ सतीश रहता है. सतीश उसे प्रेम करता है. वह भी सतीश से प्रेम करती है, लेकिन इस उद्देश्य से सतीश को दूर हटाती है कि विधवा का विवाह समाज में मान्य नहीं. सतीश उसे समझ नहीं पाता और वह उसे ऐसी चरित्रहीन औरत समझ लेता है जो किसी दूसरे के पास चली गई हो. सावित्री के कारण ही उपेन्द्र और सतीश में मनमुटाव होता है. उपेन्द्र सावित्री को उस दिन सतीश के घर पर देख लेता है जिस दिन वह सतीश से पैसे उधार लेने आती है. सतीश आहत होकर एकांतवास में चला जाता है. यहाँ उसका पता उपेन्द्र के दोस्त ज्योतिष की बहन सरोजनी को चल जाता है. उपेन्द्र के माध्यम से ही वह सतीश को जानती है और उस पर मोहित भी है. सरोजिनी को शशांकमोहन नामक युवक भी चाहता है लेकिन सरोजिनी की माता सतीश को ही दामाद बनाना चाहती है. शशांकमोहन सतीश-सावित्री की कथा ज्योतिष को सुनाता है जिससे सरोजिनी के विवाह की बात अटक जाती है. सतीश पिता की मृत्यु के बाद अपने पैतृक गाँव चला जाता है और एक तांत्रिक के पीछे लगकर नशा करने लगता है और बीमार पड जाता है. सतीश का नौकर सावित्री को ढूंढ लाता है. सावित्री तांत्रिक को भगाकर सतीश को सम्भालती है. वह उपेन्द्र के नाम भी खत लिखती है. उपेन्द्र भी सावित्री के बारे में जान चुका होता है. वह सरोजनी को लेकर गाँव पहुंचता है. उपेन्द्र सावित्री को अपनी बहन बना लेता है और सतीश-सरोजनी की शादी निश्चित कर दी जाती है. सतीश आराकान जाकर दिवाकर और किरणमयी को लेकर आता है. किरणमयी उपेन्द्र के सामने नहीं आना चाहती इसलिए वह सतीश के घर नहीं आती, लेकिन बाद में पागलावस्था में सतीश के घर पहुंच जाती है. उपेन्द्र दिवाकर का भार सावित्री को सौंप सतीश, सावित्री, दिवाकर और सरोजनी की उपस्थिति में प्राण त्याग देता है. जिस समय उपेन्द्र की मृत्यु होती है उस समय किरणमयी पास के कमरे में गहरी नींद सौ रही होती है.
इस उपन्यास में बीच-बीच में विद्वता भरा बोझिल वाद-विवाद भी है. सत्य क्या है, ईश्वर है या नहीं, वेद-पुराण सच हैं या झूठ, अर्जुन तीर से भीष्म को पानी पिलाता है या नहीं और प्रेम के विषय को लेकर लम्बे वाद-विवाद होते हैं और ये वाद-विवाद करती है किरणमयी. इस प्रकार किरणमयी एक तरफ विदुषी है तो दूसरी तरफ लम्पट औरत जो अनंगमोहन, उपेन्द्र और दिवाकर को वासना की दृष्टि से देखती है और अनंगमोहन और दिवाकर से सम्बन्ध भी स्थापित करती है.
शीर्षक के आधार पर किरणमयी ही इस उपन्यास की प्रमुख महिला पात्र होनी चाहिए, लेकिन सावित्री भी मौजूद है. सावित्री श्रेष्ठ चरित्र की स्वामिनी है. वह झूठे आरोप सहती है, दुःख उठाती है तो सिर्फ इसलिए कि उसने जिससे प्रेम किया है वह पथ भ्रष्ट न हो जाए, समाज में कलंकित न हो जाए. वह अपने प्रेम के बूते सतीश को सही राह पर ले आती है. इस दृष्टिकोण से चरित्रहीन एकपक्षीय शीर्षक दिखाई पड़ता है. यह इस दृष्टिकोण से भी एकपक्षीय है कि पुरुष पात्र चरित्रहीन नहीं. यहाँ तक कि जिस दिवाकर को किरणमयी भगाकर ले जाती है वह भी निर्दोष दिखाई देता है. वह किरणमयी से प्रेम के विषय को लेकर इसलिए चर्चा करता है क्योंकि उसने जो कहानी लिखी थी उसमें वर्णित प्रेम को किरणमयी आदर्श नहीं मानती. किरणमयी जब उसे भगाकर ले जाती है तब भी वह बेचैन है किरणमयी से दूर रहना चाहता है लेकिन किरणमयी उसे जबरदस्ती पतित कर देती है. उपेन्द्र तो एक आदर्श पात्र है ही. सतीश भी एक प्रेमी है चरित्रहीन नहीं.
किरणमयी की कथा इस 45 अंक के उपन्यास के 11 वें अंक से शुरू होती है. अत: स्पष्ट है कि यह कथा प्रमुख कथा नहीं है, लेकिन शीर्षक के आधार पर यही कथा इस उपन्यास की प्रमुख कथा लगती है. इस उपन्यास का अंत उपेन्द्र की मृत्यु और किरणमयी के पागल हो जाने के साथ हो जाता है. सतीश-सरोजनी का विवाह निश्चित हो जाता है और दिवाकर को सावित्री के हाथ सौंप दिया जाता है , उपेन्द्र दिवाकर का विवाह अपनी पत्नी की बहन से करने की बात भी सावित्री को कह कर जाता है. सावित्री त्याग की मूर्ति की रूप में स्थापित होती है.
इस उपन्यास में बांगला समाज और तत्कालीन परिस्थितियों का भी सुंदर चित्रण है. बांगला समाज पाश्चात्य दृष्टिकोण को लेकर दो भागों में बंटा हुआ है. ज्योतिष के माता-पिता में इसी बात को लेकर अलगाव हो जाता है की ज्योतिष का पिता बैरिस्टर बनने के लिए विदेश चला जाता है. ज्योतिष, शशांकमोहन और सरोजनी पाश्चात्य ख्यालों के हैं लेकिन ज्योतिष की माता पुराने ख्यालों की होने के कारण ही शशांक की बजाए सतीश को दामाद के रूप में चुनती है. बीमारियों का इलाज़ नहीं. सुरबाला और उपेन्द्र का निधन इसी कारण होता है. गाँव में बीमारियाँ महामारी के रूप में फैलती हैं इसलिए जब सतीश गाँव जाने का फैसला लेता है तो उसका नौकर डर जाता है. सतीश के बीमार हो जाने पर यह डर सच साबित होता प्रतीत होता है.
संक्षेप में कहें तो यह उपन्यास शरतचंद्र की ख्याति के अनुरूप ही है, इसकी रोचक कथा पाठकों को शुरू से अंत तक बांधे रखती है.

Wednesday, 24 August 2016

जीवट की कहानियाँ

  1. जीवट का अर्थ होता है- साहसी लोग  या फिर ह्रदय की वह दृढ़ता जिसके कारण मनुष्य साहसिक कार्यों में निर्भय होकर प्रवृत्त होता है
ये पुस्तक मे कुछ ऐसे ही लोगो का साहसिक कार्यो का वर्णन है........ जो अपने जीवन को ज्ञान, विज्ञान के लिए नौछावर कर दिये -----



DOWNLOAD-जीवट की कहानियाँ

Saturday, 13 August 2016

प्रेमकांता संतति

Link Updated----
चंद्रकांता उपन्यास की लोकप्रियता के बाद ऐयारी और तिलिस्म पर आधारित कई उपन्यास लिखे गए। इनमे सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ था- शम्भूप्रसाद उपाध्याय द्वारा लिखित प्रेमकांता और प्रेमकांता संतति।
इस उपन्यास को कुल ५ भागों में बांटा गया है ----------------


प्रेमकांता संतति-1

Friday, 12 August 2016

भागवत गीता-हिन्दी

श्रीमद्भगवद्‌गीता हिन्दुओं के पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है। महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध में श्री कृष्ण ने गीता का सन्देश अर्जुन को सुनाया था। यह महाभारत केभीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया एक उपनिषद् है। इसमें एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग, भक्ति योग की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है। इसमें देह से अतीत आत्मा का निरूपण किया गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता बदलते सामाजिक परिदृश्यों में अपनी महत्ता को बनाए हुए है और इसी कारण तकनीकी विकास ने इसकी उपलब्धता को बढ़ाया है, तथा अधिक बोधगम्य बनाने का प्रयास किया है। दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक महाभारत में भगवद्गीता विशेष आकर्षण रही, वहीं धारावाहिकश्रीकृष्ण (धारावाहिक) में भगवद्गीता पर अत्यधिक विशद शोध करके उसे कई कड़ियों की एक शृंखला के रूप में दिखाया गया। इसकी एक विशेष बात यह रही कि गीता से संबंधित सामान्य मनुष्य के संदेहों को अर्जुन के प्रश्नों के माध्यम से उत्तरित करने का प्रयास किया गया। इसके अलावा नीतीश भारद्वाज कृत धारावाहिक गीता-रहस्य (धारावाहिक) तो पूर्णतया गीता के ही विभिन्न आयामों पर केंद्रित रहा। इंटरनेट पर भी आज अनेकानेक वेबसाइटें इस विषय पर बहुमाध्यमों के द्वारा विशद जानकारी देती हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में शामिल है।गीता प्रेस गोरखपुर जैसी धार्मिक साहित्य की पुस्तकों को काफी कम मूल्य पर उपलब्ध कराने वाले प्रकाशन ने भी कई आकार में अर्थ और भाष्य के साथ श्रीमद्भगवद्गीता के प्रकाशन द्वारा इसे आम जनता तक पहुंचाने में काफी योगदान दिया है।

भगवद्गीता सन्देश सार

गीता का उपदेश अत्यन्त पुरातन योग है। श्री भगवान् कहते हैं इसे मैंने सबसे पहले सूर्य से कहा था। सूर्य ज्ञान का प्रतीक है अतः श्री भगवान् के वचनों का तात्पर्य है कि पृथ्वी उत्पत्ति से पहले भी अनेक स्वरूप अनुसंधान करने वाले भक्तों को यह ज्ञान दे चुका हूँ। यह ईश्वरीय वाणी है जिसमें सम्पूर्ण जीवन का सार है एवं आधार है। मैं कौन हूँ? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है? मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा, कहाँ जाना होगा? किसी भी जिज्ञासु के हृदय में यह बातें निरन्तर घूमती रहती हैं। हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते। गीता शास्त्र में इन सभी के प्रश्नों के उत्तर सहज ढंग से श्री भगवान् ने धर्म संवाद के माध्यम से दिये हैं। इस देह को जिसमें 36 तत्व जीवात्मा की उपस्थिति के कारण जुड़कर कार्य करते हैं, क्षेत्र कहा है और जीवात्मा इस क्षेत्र में निवास करता है, वही इस देह का स्वामी है परन्तु एक तीसरा पुरुष भी है, जब वह प्रकट होता है; अधिदैव अर्थात् 36 तत्वों वाले इस देह (क्षेत्र) को और जीवात्मा (क्षेत्रज्ञ) का नाश कर डालता है। यही उत्तम पुरुष ही परम स्थिति और परम सत् है। यही नहीं, देह में स्थित और देह त्यागकर जाते हुए जीवात्मा की गति का यथार्थ वैज्ञानिक एंव तर्कसंगत वर्णन गीता शास्त्र में हुआ है। जीवात्मा नित्य है और आत्मा (उत्तम पुरुष) को जीव भाव की प्राप्ति हुई है। शरीर के मर जाने पर जीवात्मा अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में विचरण करता है। गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त में इसे धर्म संवाद कहा है। धर्म का अर्थ है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण किया गया है। धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। आत्मा इस संसार का बीज अर्थात पिता है और प्रकृति गर्भधारण करने वाली योनि अर्थात माता है।
धर्म शब्द का प्रयोग गीता में आत्म स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए जगह जगह प्रयुक्त हुआ है। इसी परिपेक्ष में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है। आत्मा का स्वभाव धर्म है अथवा कहा जाय धर्म ही आत्मा है। आत्मा का स्वभाव है पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है। इसके विपरीत अज्ञान, अशांति, क्लेश और अधर्म का द्योतक है।
आत्मा अक्षय ज्ञान का स्रोत है। ज्ञान शक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता है, प्रकति का जन्म होता है। प्रकृति के गुण सत्त्वरजतम का जन्म होता है। सत्त्व-रज की अधिकता धर्म को जन्म देती है, तम-रज की अधिकता होने पर आसुरी वृत्तियाँ प्रबल होती और धर्म की स्थापना अर्थात गुणों के स्वभाव को स्थापित करने के लिए, सतोगुण की वृद्धि के लिए, अविनाशी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर अवतार गृहण करती है।
सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है। यद्यपि अलग-अलग देखा जाय तो ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि का गीता में उपदेश दिया है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है। (सन्दर्भ - बसंतेश्वरी भगवदगीता से)
जैसे न्यूटन के पहले भी गुरुत्वाकर्षण का बल कार्य करता था किन्तु न्यूटन ने युगानुकूल शब्दावली देकर इसे विश्व को "गुरुत्वाकर्षण के नियम" के घोषित सिद्धांतों से अवगत कराया, जो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के रूप मे जाना जाता है। ठीक उसी प्रकार स्री कृष्ण द्वारा गीता में प्रतिपादित तत्व ज्ञान कृष्ण के पहले भी था, जो आज स्रीमद भग्वद् गीता के रूप मे प्रचलित है-------
भागवत गीता
भागवत गीता